“नियुक्ति में पारदर्शिता ही उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की कुंजी – गौतम ओझा (वरिष्ठ पत्रकार)”
।।अग्रलेख।।
झारखंड की उच्च शिक्षा व्यवस्था लंबे समय से शिक्षकों की कमी और नियुक्ति प्रक्रियाओं की अव्यवस्था से जूझ रही है। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में रिक्तियों का अंबार है, जिसके कारण शिक्षण का स्तर प्रभावित हो रहा है। हाल में हाईकोर्ट के दबाव के बाद राज्य सरकार ने माना है कि सितंबर के अंत तक 431 और बैकलॉग के 35 पदों पर सहायक प्राध्यापकों की नियुक्ति के लिए विज्ञापन निकाला जाएगा। यह निश्चित रूप से एक सकारात्मक कदम है, लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ विज्ञापन निकाल देने भर से समस्या का समाधान हो जाएगा?
पिछले एक दशक के अनुभव बताते हैं कि झारखंड में हुई अधिकतर नियुक्तियां विवाद, धांधली और कोर्ट-कचहरी के चक्कर में उलझती रही हैं। जेपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा इसका ताजा उदाहरण है, जो आज भी न्यायालय में लंबित है और सफल अभ्यर्थियों का भविष्य अधर में लटका हुआ है। तीन बार स्थगित हो चुकी सीजीएल परीक्षा और 2016 की हाईस्कूल शिक्षक नियुक्ति प्रक्रिया में गड़बड़ियों ने राज्य की भर्ती प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। प्लस-टू शिक्षक नियुक्ति में भी पारदर्शिता की कमी साफ दिखाई दी। इन मामलों ने युवाओं में गहरा आक्रोश और अविश्वास पैदा किया है।
झारखंड की तुलना अगर बिहार से की जाए तो स्पष्ट फर्क सामने आता है। बिहार ने हाल में अपनी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में नियुक्तियों के लिए “टेस्ट ड्राइव” चलाकर पारदर्शिता और त्वरित प्रक्रिया का उदाहरण पेश किया है, जिसकी देशभर में सराहना हो रही है। वहीं झारखंड की नियुक्तियां धांधली, भाई-भतीजावाद और अदालत के आदेशों में उलझकर युवाओं की आशाओं पर पानी फेर रही हैं। यही कारण है कि अन्य राज्यों के परीक्षार्थी भी झारखंड की भर्ती प्रक्रिया पर संदेह करने लगे हैं।
अब जब सहायक प्राध्यापकों की नियुक्ति की बात हो रही है, तो सरकार को इस अवसर का सदुपयोग करते हुए पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष बनाना चाहिए। हरियाणा, दिल्ली, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश की तरह दो चरणों वाली परीक्षा प्रणाली अपनाना समय की मांग है। इससे यह सुनिश्चित होगा कि योग्य और मेहनती अभ्यर्थी छनकर सामने आएंगे और फर्जी कागजात या राजनीतिक दबाव के बल पर कोई नियुक्ति नहीं पा सकेगा।
झारखंड के विश्वविद्यालयों में पहले भी यह देखा गया है कि मेरिट लिस्ट जारी होते ही राज्य के अभ्यर्थियों को बाहर कर दिया गया और बाहरी राज्यों के उम्मीदवारों को लाभ दिलाया गया। रांची विश्वविद्यालय और पलामू विश्वविद्यालय इसके ताजा उदाहरण हैं। बीबीएमकेयू और सिदो कान्हो विवि मेंयहां तक कि कुछ नियुक्तियों में “बंद लिफाफा” खोलने तक पर रोक लगाने की नौबत आ गई। यह स्थिति उच्च शिक्षा के भविष्य के लिए बेहद खतरनाक है।
राज्य सरकार को चाहिए कि वह पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रिया को सर्वोच्च प्राथमिकता दे। चयन प्रक्रिया में भाई-भतीजावाद और बाहरी दबाव से दूरी बनाए, योग्य अभ्यर्थियों की परीक्षा और साक्षात्कार से जांच हो, और पूरी प्रक्रिया को ऑनलाइन पारदर्शी तरीके से सार्वजनिक किया जाए। केवल तभी युवाओं का भरोसा लौटेगा और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता भी बनी रहेगी।
झारखंड की युवा पीढ़ी मेहनती और प्रतिभाशाली है। वे अवसर और न्यायसंगत चयन प्रक्रिया चाहते हैं, न कि धांधली और निराशा। सरकार यदि इस बार पारदर्शी नियुक्ति की राह अपनाती है, तो न केवल शिक्षा की गुणवत्ता सुधरेगी, बल्कि राज्य के उज्ज्वल भविष्य की नींव भी मजबूत होगी।
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